Saturday, January 18, 2014

मजबूर हूँ मैं और मजबूर है तू - Desperate

मजबूर हूँ मैं और मजबूर है तू 
अल्लाह हु अल्लाह हु अल्लाह हु 

कहीं ऐसा तो नहीं कि 
खुदा भी बस मजबूरीवश ही क़यामत नहीं ला पा रहा 
लगता है कि रोक रक्खा है चंद मासूम बेकसूरों ने उसे... 


पैरों तले कि ज़मीन जब खिसकाने पे उतारू हो ज़िंदगी,
आसमान सर पे उठाने में जब लगी हो ज़िंदगी,
चारो खाने चित्त गिरा दे जब तुम्हे ज़िंदगी,
वक़्त, ए मेरे हसीं दोस्त, तब उखड़ जाने का नहीं,
रूठने-मनाने में या तलवार उठाने में भी वो दम नहीं,
मौका है, दस्तूर है ये सब्र और श्रद्धा को जगाने का,
इश्क़ से अपने यारब से लिपट कर आराम फरमाने का,
इसी रूहानी ताक़त को ये 'दीवाना वारसी' कहता है असल बंदगी
चल आजा मेरी जान मिलकर मनाएँ जश्न-ए-ज़िंदगी
उत्सव से, उल्हास से कर दें हैम इसे लबरेज़ 
भावनाओं के सैलाब से हमें नहीं परहेज़ 
चल मेरे साथ चल ए मेरे हमसफ़र 
चल फिर एक बार फिर ताज़ातरीन तरीकों से जियें हम ज़िंदगी 
बस इतना जान ले तू मगर कि मिटाना गंदगी नहीं कोई दिल्लगी 
ज़मानेवालों ने लगा रक्खी है मोहब्बतों पे कई सारी पाबंदगी
सुना है मगर कि इश्क़ और जंग में सबकुछ जायज है ओ मेरी संगिनी...

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