Wednesday, June 26, 2013

रायचंदी - unsolicited advice

रायचंदी 

मेरे मित्र ईश् ने कल रात एक अनजान एवं अनाम महोदय/महोदया द्वारा टंकित sms फॉरवर्ड किया था। आपकी अंतरात्मा को कचोटने हेतु प्रस्तुत करता हूँ :



मैंने पुछा 
हे केदारनाथ !!
भक्तों का क्यों नहीं दिया साथ ?
खुद का धाम बचाकर 
सबको कर दिया अनाथ।
वे बोले
"मैं सिर्फ मूर्ती या मंदिर में नहीं 
पृथ्वी के कण कण में बसता हूँ
हर पेड़, हर पत्ती,
हर जीव, हर जंतु 
तुम्हारे हर किन्तु, हर परन्तु में बसा हूँ 
हर सांस में, हर हवा में,
हर दर्द में, हर दुआ में...
तुमने प्रकृति को बहुत छेड़ा 
पेड़ों को काटा, पहाड़ों को तोड़ा 
मुर्गी के खाए अंडे 
कमजोरों को मारे डंडे 
खाया पशु-पक्षियों का मांस 
 मेरी ही हर बार तोड़ी तुमने साँस 
फिर आ गए तुम मेरे दरबार में 
मेरा ही अपमान करके 
मेरी मूर्ती का किया सत्कार 
हे मूर्ती में भगवान् को समेटने वालों 
संभल जाओ अधर्म को धर्म कहने वालों 
करते हो हिंसा और फिर पूजा
अहिंसा से बढ़कर नहीं कोई धर्म दूजा 
मेरे नाम पर अधर्म करोगे
तो ऐसा ही होगा 
दुसरे जीवों को अनाथ करोगे 
तो मंजर इससे भीषण होगा।"

इस बेतुके मशविरे का हमने भी दिया फिर एक बेतुका सा ही जवाब
आप ही पढ़कर कहिये की कैसा लगा जनाब?

आदरणीय साहब/साहिबा !!
और सबकुछ तो खैर आपने 
लिखा एकदम खरा-खरा है  
पर 
अंडे-मांस-मछली को
साग-फल-सब्जी से पृथक करके 
अलग-अलग देख
ये भी दिखा दिया हमें आपने ही 
की
आपके मुख से या कलम से 
  हमारे अद्वितीय प्रभु नहीं
अपितु 
आपका ही सिमित मन बोला था   
 आपकी सोच में अद्वैत का अधुरा ज्ञान धरा है 
अद्वैत का भान अभी आपको पूर्णतः नहीं फला है
मित्र तुम, सखी तुम, सखा तुम 
  अहिंसा को परमोधर्म मानने वाले 
इंसान तो लगते हो बड़े ही प्यारे 
पर 
लगता ये भी है 
की 
परमपूज्य इश्क अभी उतरा नहीं आपकी अंतरात्मा के द्वारे
ढाई आखर प्रेम को 
अब तक ना आपने 
खुदी को कूट कूट कर 
खुद के भीतर भरा है
कागजी ज्ञान सदा ही रह जाता 
प्रेम-ध्यान के आगे धरा की धरा है 
रघुकुल रित सदा चली आई 
प्राण जाई पर वचन ना जाई 
एक सच्चा भक्त और एक सच्चा भारतीय 
सच्चे दिल और सच्चे कर्मो से 
निभाता आया यही संस्कार 
और सच पूछो तो 
यही सच्ची परम्परा है।

।। सत्य मेव जयते ।।

मन is bad case....isn't it?

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