Sunday, March 31, 2013

Oneness


"A human being is a  part of the whole, called by us - Universe; a part limited in Time and Space. he expenses himself, his thoughts and feelings as something separated from the rest.... A kind of optical delusion of his consciousness. This delusion is a kind of prison for us, restricting us to our personal desires and to affection for a few persons nearest to us. Our task must be to free ourselves from this prison by widening our circle of compassion to embrace all living creatures and the whole of nature in its beauty."
               - Albert Einstein


A part will continue to remain only a part of this continuum and never entire Universe till it continues to believe itself to be just a part and never travels beyond the limits to feel oneness with Universe.

Death is one way to be one with one and only one.

Death of mind is death of "I".
Death of body is death of feeling of "mine & yours".
Death of our soul is reincarnation of the soul with oneness with the "Supremo" within.
Its a journey from 'Abyss' to 'Bliss' without feeling any need to even discard the abyss.
All-in-One it is.

Time is a wonderful factor. It has No Value at all if you give or share it with others lovingly. This is so because at this juncture your freedom is considered as Joblessness but the same Time becomes Priceless when others give or share it with you. This happens because NOW it means that they care so much for you that they take out or spare Time for you with due concern. They somehow make themselves Totally Free for your sake, about which we should not only thank them but also feel gratitude.

Well...how can we even expect them to share their Valuable Time with jobless individuals like us?

Especially so, when they are immensely Busy in living and leading their life as they want to, wish to and will to?

More so, when they do not even get Time from their Busy worldly schedule to read or know even themselves?

...just because they aren't aware of possibility of attainment of Timeless & Ego less state of Divine Pleasure or Bliss in day-to-day life without even needing to make sexual love does not, in any way, mean that they are Poor.

Mind you; each one of us has been Godly gifted to involuntarily feel sexual arousal, ejaculation or multiple orgasms during Times of making love when mind-body & soul Timer is set in harmony to feel oneness with the one and only one.

Just one minute 
Just one second
Just one moment of TIME spent attentively, meditatively, consciously has the power to take us on the journey to blissful state.
Yup....from NOWHERE to NOW-HERE.  


MAN IS BAD KASE....isn't it?
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Saturday, March 30, 2013

खुदा की लाठी - Wrath of God



"खुदा की लाठी 
या 
कल्पेषित लफ्ज़ों में यूँ कह लीजिये की भारत भाई का जूता
 जब सर पे पढता है तो आवाज़ भी नहीं आती है जनाब..."

"बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता,
वर्ना ग़ालिब तेरी औकात क्या है"

ये ताना मिर्ज़ा ग़ालिब ने बहादुर शाह ज़फर द्वारा पदायुक्त मुसाहिब जनाब जोंक के लिए सरे राह कहा था। बाद में बादशाह के दरबार में मजलिस के दौरान उनकी नेकदिली और रहनुमाई से बाबस्ता हो ग़ालिब ने ये तंज खुद पर ही कस लिया था। ग़ालिब जानते थे की मुर्ख लोग तो उनका तंज कभी ना समझ पाएंगे पर बहादुर शाह ज़फर तो आखिर शाह ठहरे, कोई आजकल के दैनिक भास्करी या अग्रवाल नहीं जो इतना वक़्त लगाएं बुनियाद समझने में। सो वे तो तुरंत समझ गए की असल में ताने के पिछे का उद्देश्य या मर्म क्या है और मंद-मंद मुस्कुरा कर इज़हार भी कर दिया अपनी सोच-समझ का।

यहाँ भी शाह कौन, मुसाहिब कौन, ग़ालिब कौन है ये आप जैसे महानुभावों से भला कैसे छिप सकता है? और गर छिप ही जाए तो लानत आपकी बादशाही पर नहीं वरन दोष हमारे अंदाज़-ए-बयान का ही समझिएगा जनाब !! 

अब वैदिक प्रताप जी को ही देखिये। बहुत व्यस्त हैं वे पाकिस्तान में होने वाले चुनावों की स्वच्छता को लेकर सतही तौर पर। मुखोटा लगा रखा है उन्होंने पाकिस्तानी चिंतनशील होने का पर उनकी असल नीयत, मनसूबे और मंशा भला बादशाह सरकार से छिप सकती है कभी? वे खुद ही वक़्त-बेवक्त ज़ाहिर करते रहते है अपने नापाक मन की दिमागी हालत अपनी ही कलम से  !!

फिर कल्पेश याग्निक जी का शोशानुमा शु-स्वागतम देखिये। खुद-ब-खुद जान जायेंगे आप की की ये व्यक्तित्व खुद कितनी दोहरे मापदंडों का और मानसिकता का शिकार है। हर एक जूता फेंक घटना पर उस वक़्त तो खूब दैनिक भास्करी रोटियां सेंक ली और अब जब हालात ये हो गए हैं की एक नहीं अनेक जूते उनके सर पर सुबह-शाम पड़ रहे हैं तो सही-गलत, चरित्र, मानवीय अधिकारों का पवित्र-पावन उपयोग वगिरह वगैरह जैसी साड़ी दकियानूसी, थोथरी और ढकोसलेबाज परम्पराओं का ज़िक्र छेड़ बैठे हैं पर बच न सकेंगे अल्लाहताला की लाठी से, मार से। अभी तो सिर्फ लिखकर, बोलकर, गाकर, कलाकृतियों के माध्यम से 'विरोध' व्यक्त किया जा रहा है उनकी असंभव के विरुद्ध संभावित जालसाजी से परिपूर्ण व्यक्तित्व का। उन्हें जो करना है वे करें ...बेख़ौफ़ होकर एकमत होकर हर घटना का एक जैसा विरोध करने की परम्परा का निर्वाह करें, जिद करें, ना ना कहें ...वे आज़ाद हैं उनके कर्मो का चुनाव करने के लिए और हम भी। बस ... हमपर ना थोपें अपनी याग्निकता  !!


पर फिर और करें भी क्या ये तथाकथित दैनिक भास्करी गुणिजन जब असल सदगुरू तो नहीं अपितु सदगुरुत्व के नाम पर एक चालबाज़ जीवन प्रबंधन की दूषित 'जीने की राह' दिखाने वाले चालबाज़ पंडित का दोमुँहा साथ मिला है इन्हें। 
मिला है या इन्होने ही अपना लिए है? 
महात्मा गाँधी और उन जैसे राष्ट्रसेवकों के खेती करके, सूत कातकर, आसपास की गंदगी साफ़ करते हुए, इश्वर का सिमरन करते हुए वातावरण को पवित्र बनाने का सहज प्रयास कर स्वयं कष्ट भोगकर जेल को महल समझने के 'जीवन दर्शन' को छोड़ जानबूझकर अपना लिया है इन दुष्ट आत्माओं ने 
विजयी होने की महत्वाकांक्षाओं को, 
पराजित होने के भय से बस कभी-कभी स्वयं को समर्पित दिखाने वाले मन को, 
स्वार्थ सिद्धि हेतु अपनाए गए कल्पीत अध्यात्म को, 
ताक़त के मोह-मायावी जाल में परमशक्ति की शक्ति पाने हेतु स्वयं को उलझा लिया है इन्होने, 
उपयोग करना जानते हैं ये बस इश्वरत्व का 
और वो भी व्यावहारिकता में नहीं अपितु प्रतिस्पर्धा के दौर में खुद को स्थापित करने के लिए।
 नज़रों से बचना का बस दिखावे भरी बातें करवा लीजिये इनसे। 
असल में तो ये लोग हमारी-आपकी नज़रों में  पंडित बने रहना चाहते हैं 
और वो भी सिर्फ इनकी प्रशंसात्मक प्रतिक्रियाएं अपनी झोली में इनके लिए साधुवाद लिए हुए, 
इनके अहंकारी व्यक्तित्व के सामने अपनेआप को पूर्णतः समर्पित किये हुए। 
इनका निंदा करना तो घोर अपराध है इनकी नज़र में...ठीक उतना ही बड़ा अपराध जितना की परमात्मा की निंदा करना है।
 दैनिक भास्कर समूह की निंदा करना तो ऐसा है जैसे सूर्यदेव की निंदा कर दी हो। बस यही इनकी असल 'जीने की राह' है  !!

    

twitting some timely recorded untimely tweets

दैनिक भास्करीय सुविचार 
२५ मार्च, २०१३ 

सीमाएं हमारी सोच में होती है।
अगर हुम अपनी कल्पना शक्ति का  उपयोग करते हैं,
तो हमारी संभावनाएं अपरिमित हो जाती हैं। 

tweet :

वो कल्पना शक्ति संभावनाओं को अपरिमित नहीं कर सकती 
जो पहले ही
असंभव की दूषित सोच से सिमित हो चुकी है; 
ग्रसित हो चुकी है। 
वो तो महज एक काल्पनिक धारणा बनकर रह गई है 
जिसकी हार 
आज नहीं तो कल 
पूर्णतः सुनिश्चित है। 

दैनिक भास्करी बात पते की;

जिसका निश्चय दृढ़ और अटल है वह दुनिया को अपने सांचे में ढाल सकता है।
- गेटे 

tweet:

गेटे जी का ढांचा २ गुणित ६ फिट की कब्र में दफ़न है। 
दृढ़ कल्पना और अटल अहंकार में अटक गई है उनकी दुनिया।
सांचे और ढाल का अब तक कुछ पता नहीं चला।

palm day पर चुक गए टोनी जोसफ :

लम्बे समय तक गांधी, नेहरु परिवार का शासन होने के कारण देश को आर्थिक मोर्चे पर भारी कीमत चुकानी पड़ी है।

tweet:

जनतंत्र में, लोकतंत्र में असल शासन किसका होता है टोनी जी ?
कुछ ना बदलेगा- जब तक जन जन का, गण गण का मन नहीं बदलेगा, तंत्र नहीं बदलेगा।


जन गण मन 
अधिनायक जय है 
भारत भाग्य विधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा 
द्राविड उत्कल बंगा 
विन्ध्य हिमाचल यमुना गंगा 
उच्छल जलधि तरंगा 
तव शुभ नामे जागे 
तव शुभ आशीष मांगे 
गाहे तव जय गाथा 
जन गण मंगल दायक जय है 
भारत भाग्य विधाता 
जय है जय है जय है 
जय जय जय जय है

शासन तो रामजी का भी रहा पर राम राज्य का क्या हुआ ?
कहते हैं की भरत भाई का चरण पादुका या आज के सन्दर्भ में यूँ कहिये की जूता मार या कड़क खडाऊ राज्य जो नियम विरूद्ध पाए जाने पर किसी को भी नहीं बक्श्ता था चाहे आप लक्ष्मण जी को जीवित रखने के लिए संजीवनी ले जाने वाले हनुमान जी ही क्यों ना हो ? अगर आपने कानून का उल्लंघन किया है, सीमाएं लाँधि हैं तो फिर चाहे आप कपी हों, सीता जी हों या कोई और हो, जवाबदेह तो आप हो ही गए। भले ही फिर महामहिम आपकी मंशा और मंसूबा जान आपको बक्श दे तो बक्श दें।

रामजी भी चाहते तो आप जैसे पीत पत्रकारिता जगत के पीत पत्रकारों की तरह हम जैसे धोबी की आवाज को, प्रश्न को, संदेह को बिना कोई तार्किक/अतार्किक जवाब दिए दबा सकते थे, दफना सकते थे, कुचल सकते थे पर उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वे जनतंत्र आधारित राम-राज्य के मर्यादा पुरुषोत्तम थे और है। वे हर एक आम-आदमी की आवाज़ को पूर्ण हक देने का धर्म निभा रहे थे। चाहे फिर उन्हें आप जैसे लोगों की इस ताड़ना का, लांछन का, निंदा का की वे अपने स्वयं के निजी/व्यक्तिगत पारिवारिक कर्तव्यों का पालन नहीं कर सके और वो भी उस भारतीय परिवार के हित हेतु जो सीता जी की अग्नी-परीक्षा लेकर भी संतोषित नहीं हुआ - आज तक। सीता जी ने तो आज तक नहीं कोस रामजी को या उनके निर्णयों को पर आज के तथाकथित नारिनुमा नर और नरनुमा नारियाँ 

जब दिल चाहे अपनी सिमित सोच के चलते कोसते रहते हैं विष्णू जी के अवतार को। 
शायद आप भी ज्यादातर धर्मावलम्बी भारतीयों की तरह भरत भाई के 'जूता मार राज्य' के ही तरफदार हैं। आपकी मर्जी, जिसे चाहे चुने आप आगामी चुनावों में। निर्मम तानाशाही शासन का तिलक अपने दम्भी माथे पर लगाए हुए एक तानाशाह गुजरात में तैयार हो ही चूका है आपको इस प्रायोगिक अनुभव से गुजारने के लिए। तमाम दैनिक भास्करियों की तरह आप भी अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु जरूर उपभोग कीजिये, उपयोग कीजिये अपने जनतांत्रिक हकों का। क्या पता फिर ये जूता मार राज्य आपको ये हक दे या ना दे?             
YouTube - Videos from this email
Man is bad case.... isn't it?

Thursday, March 21, 2013

Stranger in you world...

Stranger In Moscow

I was wandering in the rain
Mask of life, feelin' insane
Swift and sudden fall from grace
Sunny days seem far away
Kremlin's shadow belittlin' me
Stalin's tomb won't let me be
On and on and on it came
Wish the rain would just let me be

How does it feel
(How does it feel)
How does it feel
How does it feel
When you're alone
And you're cold inside

Here abandoned in my fame
Armageddon of the brain
KGB was doggin' me
Take my name and just let me be
Then a begger boy called my name
Happy days will drown the pain
On and on and on it came
And again, and again, and again...
Take my name and just let me be

How does it feel
(How does it feel)
How does it feel
How does it feel
How does it feel
How does it feel
(How does it feel now)
How does it feel
How does it feel
When you're alone
And you're cold inside
How does it feel
(How does it feel)
How does it feel
How does it feel
How does it feel
How does it feel
(How does it feel now)
How does it feel
How does it feel
When you're alone
And you're cold inside
Like a stranger in Moscow
Like a stranger in Moscow
We're talkin' danger
We're talkin' danger baby
Like a stranger in Moscow
We're talkin' danger
We're talkin' danger baby
Like a stranger in Moscow
I'm livin' lonely
I'm livin' lonely baby
A stranger in Moscow

KGB interrigator [translated from Russian]:
"Why have you come from the West?
Confess! To steal the great achievments of
the people, the accomplishments of the workers..."
Hindi translation of this wonderful song:

भटकता फिर रहा हूँ बरसात में
ज़िन्दगी के मुखौटे पागल किये जा रहे हैं मुझे 
सहसा गिर पड़ता हूँ मैं आसमानी उचाईयों से 
दिन के उजाले दूर दूर तलक दिखाई नहीं दे रहे मुझे
सामाजिक ठेकेदारों की मूरतों की छाँव बोना महसूस करवा रहीं है मुझे
महात्मा गाँधी की समाधि मुझे मुझ जैसा जीने नहीं दे रही है 
आशा करता हूँ की ये लगातार हो रही बरसात मुझे मुझ जैसा होने देगी ...

कैसा लगता है 
कैसा लगता है 
कैसा लगता है 
जब आप अकेला महसूस करते हो इस भरपूर जगत में
जब आप ठंडा ठंडा महसूस करते हो भीतर भीतर ...

मेरे नाम, मेरी एकमात्र सफलता ने भी आज 
मुझ मनहूस का साथ छोड़ दिया 
मेरे मन के साथ शायद ये मेरा अंतिम युद्ध है
सामाजिक पुलिस ने मुझे धोबी का कुत्ता बना रख छोड़ा है 
न घर का न घाट का कुत्ता बन गया हूँ मैं 
मेरा नाम मुझसे भले ही ले लो 
मगर मेरी जान मुझे वापस दे दो 
तभी एक भिखारी बच्चे ने 
फिर एक बार मेरा नाम पुकारा 
कहने लगा वो की ख़ुशी के दिन फिर एक बार आयेंगे 
तेरे इस दर्द को पूरी तरह बहा ले जायेंगे 
बरसात लगातार होती रही 
बरसती रही, बरसती रही, बरसती रही वो 
जैसे जन्नत से कोई आंसू टपका रहा हो 
जैसे सातवे आसमान से खुद रो रहा हो ...

कैसा लगता है 
कैसा लगता है 
कैसा लगता है 
जब आप अकेला महसूस करते हो इस भरपूर जगत में
जब आप ठंडा ठंडा महसूस करते हो भीतर भीतर 
जैसे आप एक अजनबी हो इस शहर में 
जैसे आप एक अजनबी बाशिंदे हो इस भरपूर जगत में 
मैं खतरों की बात कर रहा हूँ 
हाँ मैं खतरा उठा रहा हूँ जानेमन 
वैसे ही जैसे एक अजनबी शहर में कोई अजनबी
मैं अकेले रह रहा हूँ 
हाँ मैं अकेला हूँ जानेमन 
अजनबी शहर में अजनबी ...

सामजिक ठेकेदारों ने मुझसे पुछा,"तुम क्यों आये हो हमारे शहर में?
गुनाह कबूल करो! की तुम लोगों से उनकी कामयाबी चुराने आये हो
मजदूरों से उनका कामकाज चुराने आये हो ...."  
Man is bad case.... isn't it?

Wednesday, March 20, 2013

HISTORICAL EVENT


दुश्मन मरिहे ते ख़ुशी ना करिए
की..., 
सजना भी एक दिन मरजाना...!!

एक एतिहासिक घटना और घटी 
जो पूर्णतः छपकर भी नहीं छपी 
जो छिपकर भी नहीं छिपी...

छिपकली की दूम की तरह 
कटकर भी वो नहीं कटी 
तडफड़ा रही है वो अब भी - कहीं ना कहीं...

तुम जीतकर भी 
हक़ीक़तन हार ही गए
तुम्हारे भरम सब ताड़ ही गए...

सरकार झुक कर जीत गई 
और देवराज इन्द्र की तरह
तुम्हारी नसें तन ही गई...

काल्पनिक जगत के याग्निक तुम बन बैठे 
भावनाओं की कल्पेषित रोटियाँ तुम सेंक बैठे
जलो अब अब बनकर दैनिक भास्करी टेके...

कई हक़ीक़तों के राज खुलना अभी बाकी है 
कई 'रूपकिशोरों' का सूली लटकना अभी बाकी है
तुम्हारा पर्दाफाश अभी होना बाकी है...

जनता जनार्दन को उकसाने का अभी सिर्फ लाभ तुम्हे किया गया है ज़ाहिर 
उन्हें बातिमन बरगलाने का जोश अब तुम्हे भी उकसायेगा क़ाफ़िर 
गालिबन बहकते भटकते रहोगे तुम भी खाकर ज़ख्म-ए-नासिर 
 
फना हुए हैं हम दिग्भ्रमित नहीं 
तसव्वुर हुआ हमारा कभी सिमित नहीं
बक़ाओं की रौशनी में होता कोई मनमीत नहीं...

Saturday, March 16, 2013

INTERVIEW WITH TRUTH (सत्य से साक्षात्कार)


http://youtu.be/PBEIeRSLb8k

१०० गुनाहगार कानूनन बच निकलें तो चलेगा 
पर 
किसी एक बेगुनाह को भी सजा ना होने देंगे ये सरकार हमारे।

सरकार ये दो-जहाँ के हैं और इन सरकार की नज़रों से आज तक कौन बच सका है भला जो गुनाहगार बच निकलेंगे।

बच बच कर भी कौन बच सका है मेरे आका - सरकार-ए-दोआलम की नज़रों से।

इस सत्य से जितनी जल्दी साक्षात्कार कर लेंगे श्रीमान कल्पेश याग्निक उतना ही उनके लिए अच्छा होगा। सरोकार उन्हें सरकार-ए-दोआलम से रखना ही होगा।आज नहीं तो कल ये होगा जरूर। कैसे और कब घटेगी ये अभूतपूर्व घटना इसका फैसला भी कल्पेश जी ही करेंगे। रोज़ रख रहे हैं वे उस और एक कदम। नित्य रच रहे हैं वो अपने कर्मो से एक पराक्रमी क्षण। दैनिक रूप से वे प्रयत्नशील हैं एक भास्कर जैसे विशाल आयोजन का सम्पादन करने हेतु।

सत्य जान बूझ कर भी वे जानबूझकर बरगला रहे हैं, उकसा रहे हैं जनता जनार्दन को स्वार्थ-सिद्धि हेतु। सबकुछ यहाँ नीयत का ही खेल है प्यारे और बस यहीं मात खा रहे हैं, बेहोश हो डगमगा रहे हैं याग्निक जी। अल्लाह उन्हें सदबुद्धि बक्शे, सत्यनिष्ठा नवाजे की वे नेकी की राह पर, दीन-ओ-ईमान का हाथ थामकर, अपना हर कदम फूँक फूँक कर, रोशनाई के नूर को अपना साक्षी मानकर उस आलमपनाह के दरबार की तरफ चल सकें।

भयभीत होने की कतई कोई जरुरत नहीं है उन्हें इस रूहानी ताक़त से। ये ताक़त सिर्फ वो ही करती जो हम दिन-रात चुनते हैं अपने कर्मो से अहंकारवश या काम-क्रोध-लोभ-मोह-माया के मायावी जाल में उलझकर। एकात्म हो जाएँ वे इस रूहानी ताक़त से अपने महत्वाकांक्षी जज़्बों का साक्षी बनकर। अंश हो सकते हैं वे इस रूहानी ताक़त के वारिस या वंशज बनकर। पल-पल होशपूर्वक साधना करनी होगी इस "सम्बन्ध" के लिए आपको। प्रेमपूर्वक तपस्या करनी होगी आपको वर्षो-वर्षों। तब कहीं जाकर होगा उनका दीदार-ओ-मदार आपको।

तब तक श्रद्धा-सबुरी रखें साईनाथ पर।

आमीन

LAUGH ;-)
http://youtu.be/0v3OeszyaxE

Friday, March 15, 2013

मुहीम के विरोध में मुहीम - PROTESTING AGAINST SLAVERY OF MEDIA SLAVES

PROTESTING AGAINST SLAVERY OF MEDIA SLAVES

  • मैं प्रभु सहमति से 'दीनिक भास्कर' की बेतुकी मुहीम का विरोध करता हूँ। यौन सम्बन्ध बनाने की उम्र १८ वर्ष से १६ वर्ष या १४ वर्ष करने के हक़ीक़तों के आधार पर किये जा रहे सराहनीय सरकारी प्रयासों के खिलाफ ये काल्पनिक मुहीम असंभव के विरुद्ध संभवतः जनता जनार्दन को उकसा कर स्वार्थ सिद्धि हेतु स्वयं के वर्चस्व को स्थापित करने का नामाकुल प्रयास है। प्रभु जल्द हमें सत्य के दर्शन करवाएंगे। शायद वे क्षण-क्षण करवा भी रहे हैं सत्य से हमारा दैनिक साक्षात्कार पर हमारा मन ही शायद हमें एकात्म नहीं होने दे रहा हमें प्रभु दर्शन हेतु।
  • मैं विरोध करता हूँ 'दैनिक भास्कर' द्वारा हमें ये सीखाने की कोशिश करना की हमें क्या लिखना चाहिए हमारे पार्टी प्रमुखों को भेजे जाने वाले सन्देश में। वे कौन होते हैं हमें अपनी मनमर्जी अनुसार चलाने वाले? क्या हमें प्रभु ने हमारी अपनी नैसर्गिक प्रतिभा से नहीं नवाज़ा है जो ये समाचार पत्र और पीत पत्रकारिता की मोह-माया के जाल में उलझा हुआ पत्रकार वर्ग अपना अर्धसत्यों और अवगुणों से लबरेज, अहंकारात्मक, हिंसात्मक, निंदनीय, अमानवीय और अंधकारमयी ज्ञान हमें बेख़ौफ़ बाँटे चले जा रहे हैं? क्या इसलिए हमने इन्हें समाज के चौथे स्तम्भ का दर्ज और कार्य दिया था? क्या सफलता ने इन्हें दिग्भ्रमित नहीं कर दिया है?
  • मैं विरोध करता हूँ डॉ वेद प्रताप वैदिक के श्रीमान राहुल गाँधी को राहुल गाँधी के अलावा किसी और तरह का तथाकथित गाँधी बन जाने के उनके महत्वाकांक्षी किन्तु अनैसर्गिक सुझाव का। वे जैसे भी हैं प्रभु द्वारा रचित अतुलनीय रचना हैं, ठीक हम सबकी तरह। अब ये चुनाव हमारा है की हम क्या बनना चाहते हैं और क्या नहीं, किन कर्मों को दैनिक जीवन के क्रियाकल्पों में उतारना चाहते हैं और किन दूषित कर्मों से निजात पान चाहते हैं या नहीं, कैसे जीना चाहते हैं और कैसे नहीं। हम स्वतंत्र हैं और हमारा अपना एक स्वभाव, एक दायित्व है प्रभु द्वारा दिखाए मार्ग पर चलने का।
  • मैं विरोध करता हूँ तथाकथित स्वयंभू पंडित विजयशंकर मेहता का जो स्त्री के ब्रह्मचर्य को ही स्त्री की पवित्रता या उसकी बहुमूल्य निधि मानते हैं और वो भी बिना ये बताये की 'ब्रह्मचर्य' शब्द का चालाक उपयोग करने के पीछे उनका असल मकसद क्या है। फिर अधकचरा ज्ञान?
  • मैं घनघोर विरोध करता हूँ "पचपन साल की उम्र में भी बचपन का बचपना" दिखाने वाले बाबा रामदेव और उनकी अभिमानी विचारों और बातों का। 
Man is bad case....isnt it?

Thursday, March 14, 2013

यौन रोगी (SEXUALLY SICK OR PERVERT !!)

प्रिय दैनिक भास्करियौन को फूहड़ कहूँ, मूढ़ कहूँ, मन-मस्तिष्क ज्वार से पीड़ित कहूँ या यौन रोगी कहूँ ??

'यौन सम्बन्ध' छापिये जनाब 
'यौन सम्बन्ध' 
ना की 'सम्बन्ध'
वर्ना तो 
हर एक सम्बन्ध की उम्र का 
रखना पढ़ेगा कानूनी हिसाब 
फिर ये भी 
यकीनन यकीन हो चला है हमें 
की 
'शादी' को 'यौन सम्बन्ध' बनाने का  
सामाजिक रूप से 
एकमात्र कानूनी जरिया 
मानते हो आप !! 

फूहड़ता ये की खुद का जना हुआ असंभव के विरुद्ध काल्पनिक विरोध को असरकारी होते ना देख बिलबिला उठे हैं ये कागजी दैनिक भास्करी। विरोध काल्पनिक क्यों है ये जानने के लिए मेरे फेसबुक, ट्विटर अकाउंट या manisbadkase.blogspot.com  पर जाकर पढ़िए इस "सम्बन्ध" में लिखा गया श्रीमान कल्पेश याग्निक के नाम एक खुला पत्र।

मूढ़ता ये की आज के युग की ज़मीनी हक़ीक़तों को रचने का पूर्णतः रसूखदार, जिम्मेदार, जवाबदार ये सिर्फ और सिर्फ मंत्रियों को, मंत्रालयों को या सरकार को मानते हैं। खुले आम बेवकूफी से भरा ये इलज़ाम लगाते हैं ये सरकार पर की " यौन सम्बन्ध की उम्र घटाने से ज्यादा जरुरी है इन्हें सही तरीके से जीने का अधिकार देना। लेकिन इस ओर सरकार का ध्यान ही नहीं है..." अधिकार मिलने से ही गर विवेक का अर्जन हो सकता तो हजारों अधिकारों के चलते इन मूढमति दैनिक भास्करियों को न जाने कब का ये वरदान प्राप्त हो गया होता। विज्ञापनों के बल पर नहीं अपितु स्वयं को गँवा देने पर ही ये रोशनाई के नूर की दौलत बक्शी जाती है हर किसी को।

इन मंदबुद्धि दैनिक भास्क्रियों को एक परोपकारी सुझाव देता हूँ। बजाये दूसरों पर मनगढ़ंत आरोप लगाने के परंपरागत रूप से ज्ञानी-ध्यानी से ये दैनिक भास्करी लोग क्यों नहीं खुद की ही एक 'दैनिक भास्करी सरकार' की रचना कर लेते? चुनाव पास ही खड़े हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या।

या फिर ऐसा भी कर सकते हैं ये विनाश काले विपरीत बुद्धित्व वाले बुद्धू लोग की इस जगत के परमपिता परमेश्वर, परमात्मा, ईश्वर, भगवानों, प्रभुओं द्वारा कल्पित-रचित-पालनक्रित-विधवंसित पर भी बेध्यानी या लापरवाह होने का दोष लगाकर लगान वसूल करना शुरू कर दें।

मन-मस्तिष्क ज्वार से पीड़ित ऐसे की भास्कर श्रुंखला / भाग ३ के अंतर्गत ये लोग न जाने किस से एक सवाल पूछते हैं की "शादी की उम्र १८ तो 'संबंधो' की १६ क्यों हो?"
जवाब हम देंगे तो प्रीतिश नंदियों को हजम नहीं होगा क्योंकि जवाब सुझाने का, बकवास करने का, बकबक करने का, शोरगुल मचाने का, तर्क-कुतर्क छपवाने का हक तो वर्षों से सिर्फ इन जैसे वरिष्ठ पत्रकारों का है - हम जैसे नौसिखियों की तो कतई कोई जरुरत भी नहीं है। जरुरत है तो सिर्फ इनके मुखारबिंद से निकले या इनके कर-कमलों द्वारा सजाये-धजाये गए ढकोसलेबाज लेखों की - बाकी सब गैरजरूरी है, दकियानूसी है जी।

चूँकि इनके पास साधन हैं, दैनिक भास्करी कूड़ेदान हैं अपने दूषित विचारों का, सारगर्भित अविचारों का कूड़ा कचरा हमारे मन-आँगन में  बेख़ौफ़ फेकने का इसलिए अपने विचार अपने तक रखने की या निर्विचार होकर जीने की राह दिखा रहे हैं इनके कृपानिधान पंडित विजयशंकर मेहता जी।

मज़े देखिये की आधा इंच पास ही छपा जीवन दर्शन पढ़कर अपनी भूलों का एहसास करने तक का नियंत्रण नहीं है जिन्हें वे हमें नियंत्रण में रहकर पुरुषार्थ करने की सीख दे रहे हैं। 

वाह भाई वाह, ये भी क्या गज़ब दोमुही तमाशा रच रखा है इन एक ही थैली के चाटते-बट्टों ने की एक तरफ तो इनका राष्ट्रीय सम्पादक 'हमसे क्यों नहीं पुछा - हमें क्यों नहीं बहस में निमंत्रित किया - हमारी राय क्यों नहीं ली - सांसदों को तवज्जो क्यों नहीं दी - मामला हमारे बच्चों का है कहकर पुरे देश को उकसाने की चाल चलता है और दूसरी तरफ जब हम फेसबुक, ट्विटर, इ-मेल या किसी और माध्यम से अपनी बात, अपने विचार इन तक पहुँचाना चाहें तो हम बेबेल का टावर।

वाह भाई वाह !! इनका खून खून और हमारा खून पानी !!

ये भी जान लीजिये की इनमे से एक के पास भी आपको जवाब देने का ना तो समय होता है ना ही ये कोई मानवीय जरुरत समझते हैं इस बात की कुछ नहीं तो कम से कम मानवीयता के नाते ही हमारे द्वारा उठाये गए मुद्दों का, प्रश्नों का जवाब देने की कोशिश करें। जवाब इनके पास है ही नहीं तो देंगे क्या ख़ाक? और अगर हैं तो क्यों नहीं रोशन करते हमारे मनमंदिर का चिराग। भले ही आपको हमारे तर्क इन्हें कुतर्क लगते हो, भले ही हमारी बातें इन्हें खुराफातें लगती हो, भले ही हमारे विचार इन्हें बेतुके और हास्यास्पद लगते हों पर कुछ नहीं तो कम से कम जगत कल्याण के लिए ही सही - एक बार तो सिलसिलेवार जवाब देने की मानवता दिखा सकते हैं ये लोग। अगर ये लोग अभी शैतान नहीं हुए हैं या भगवान् नहीं हुए हैं अपितु हैं हम जैसे ही एक इंसान तो इंसानियत का धर्म निभाएं सत्यनिष्ठ होकर और हमारी मूढ़ता का, हमारे अहंकार का पर्दाफाश सरेआम करके।

है कोई माँ का लाल जो कबूल कर सकता है हमारे इस निमंत्रण को?   

अब भी वक़्त है। सोच-समझ के जवाब दीजिये हमारे इन प्रश्नों के, इन विचाराधीन मुद्दों के। या फिर बंद कर दीजिये अपना ये दोमुहा व्यापार। बंद कर दीजिये अपने इ-मेल एड्रेस छपवाना -ब्लाक करवाना, इतराना।

जान लें ये लोग वर्ना ;
की नहीं बख्शा जाएगा इन्हें क़यामत से क़यामत तक 

आमीन

Man is bad case.... isn't it?

Tuesday, March 12, 2013

AGE OF SEXUAL RELATIONSHIP -aN OPEN LETTER TO mR. kALPESH yAGNIK

Dear Reader,


This is in reference to the article written by National Editor of Dainik Bhaskar newspaper Mr. Kalpesh Yagnik. His article "सरकार 16 साल के बच्चों के 'सम्बन्ध' वैध करने जा रही है; आप कुछ कहेंगे नहीं? was self-published under असंभव के विरुद्ध columnwhich the paper claims to be अनुशासन, अभ्यास, अनुभूति और अनुभव आधारित अलख। We will soon identify and analyse the claim as to how disciplined, practical, heartfelt and experience based brightening this article and its writer are.

I take this burdensome effort because i personally feel that it is because of such articles and writers that media has lost its responsible and honorable position of being a strong, unprejudiced, secular fourth pillar of society. I do not know how much difference my such thankless efforts are going to make and neither does the result make me worried enough to stop myself from doing what i can as a citizen of India.

Now, i shift to hindi language because the article is written in hindi which indeed is our national language.

The link or copy of Mr Kalpesh Yagnik's article is added herein for your kind perusal:

 
'16 क्या, सेक्स संबंध तो 14 वर्ष के बच्चों के मान्य होने चाहिए क्योंकि वे अब ‘सहमति’ और शोषण में अंतर बखूबी समझते हैं।'
                      - केंद्रीय कानून मंत्रालय का नोट 6 मार्च 2013 को।
 
 
'हर दूसरी भारतीय लड़की की कम उम्र में शादी की जा रही है। 470 बच्चियां यहां 18 से कम में ही व्याही जा रही हैं जिससे उनकी पढ़ाई, सेहत और भविष्य बिगड़ रहा है।'
              - 08 मार्च 2013 को संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड की रिपोर्ट

बच्चों को 14 साल की उम्र में ही सेक्स संबंध बना लेने चाहिए? 16 वर्ष तो निश्चित ही कर देना चाहिए। ‘चाहिए’, ऐसे सीधे- सीधे तो सरकार ने नहीं कहा है। किन्तु आशय यही है। होगा यही। और सरकार की ऐसी अचानक चिंता बच्चियों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर ही सामने आई है। दो दिन पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में इस पर फैसला होना था। नहीं हो सका। क्योंकि तीन मंत्रालयों के विचार अलग-अलग थे।
 
गृह मंत्रालय का सोचना है कि लड़के-लड़की के बीच सहमति से सेक्स संबंध की उम्र घटाकर 16 वर्ष कर देनी चाहिए।  इस पर कानून मंत्रालय का कहना था कि 14 वर्ष बेहतर है। और महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय इन सबके विरोध में था। वह इसे मौजूदा 18 वर्ष ही रखने पर आमादा है।
 
हमारे बच्चों पर लिया जा रहा है यह फैसला। हमें किसी ने पूछा ही नहीं। हमारे द्वारा चुन कर भेजे गए सांसदों को बताया ही नहीं। देश में कोई बहस होने ही नहीं दी गई। महिलाओं की गरिमा न गिरे, इस पर कठोर कानून बनाने के गंभीर वादे को समय पर लागू न कर पाई यह सरकार एक अध्यादेश लाई थी। बस उसी अध्यादेश को कानून बनाने की जल्दी में आनन-फानन में कुछ भी फैसले लिए जा रहे हैं। अपराधियों के विरुद्ध तो मौत की सज़ा देने से बुरी तरह डर गई यह सरकार हमारे बच्चों को कितनी छोटी से छोटी उम्र में यौन संबंध बनाने की छूट देनी चाहिए,  इस पर होड़ मची हुई है केंद्रीय मंत्रियों में! 
 
ऐसा क्यों? क्योंकि वे जानते हैं, कुछ नहीं होता। कुछ नहीं होगा। कोई नहीं पूछेगा। जब इतनी बड़ी युवा क्रांति के बाद किसी यौन अपराधी का कुछ नहीं बिगड़ा। इतनी चीत्कार के बाद भी महिला गरिमा गिराने की अलग-अलग ‘कैटेगरी’ रखी गईं। इतना नैतिक दबाव होने के बावजूद मृत्युदंड को केवल ‘जघन्यतम’ यानी ‘रेअरेस्ट ऑफ द रेअर’ अपराध में ही रखने की जि़द पर अड़ी रही यह सरकार। तो क्या डर इसे किसी आम भारतीय नागरिक का कि वह क्या सोचेगा? प्रश्न महिलाओं की गरिमा गिराने वाले नृशंस अपराधियों को थरथर कंपकंपा सके, ऐसा सख्त कानून लाने का था।
 
सारी बहस की दिशा पहले तो बदल दी स्वयं जस्टिस वर्मा आयोग ने। वह अपनी मूल बात से भटक कर न जाने किसकिस विषय में चला गया। प्रश्न उस जघन्यतम पाप करने वाले को लेकर उठा था। बालिग उम्र की सीमा से वह कुछ महीने कम था। दावा तो यही था। तो वह मज़े में ‘उम्र कम है’ कह कर छूट रहा था। ऐसा न हो, इस पर उपाय चाहा था। तो जस्टिस वर्मा आयोग न जाने विश्व के किन-किन वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, मनोविश्लेषकों के माध्यम से यह समझता रहा कि कच्ची उम्र के अपराधी बालिग होते ही अपने पुराने अपराधों से स्वयं असहमत हो जाते हैं। इसलिए उन्हें सज़ा नहीं मिलनी चाहिए!
 
विदेशों में संवेदनाओं का महत्व शून्य है। वैल्यू, फैमिली वैल्यू सिस्टम तो है ही नहीं। वहां भावनाओं का सम्मान नहीं। ऐसी व्यवस्था में उपजे विचारों को हमारे भारतीय समाज पर थोपना कितना सही है? विशेषकर जबकि सारा राष्ट्र भावनाओं से उद्वेलित हो, क्रुद्ध हो, रो रहा हो? 
 
तो कहां बात जघन्य अपराधियों की उम्र सीमा घटाने की चल रही थी,  उसकी जगह बात बच्चों के बीच संबंधों की उम्र सीमा घटाने पर होने लगी। देखिए, क्यों कह रहे हैं मंत्रालय ऐसा। 
 
गृह मंत्रालय लाया है ऐसा प्रस्ताव। उसका कहना है वह लड़कियों को बचाना चाहता है, इसलिए उम्र 16 करना चाहता है। किससे बचाना चाहता है? वह चिंतित है कि कुछ लड़के -लड़कियां अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध जीवन साथी चुन लेते हैं। विवाह के पूर्व उनमें संबंध स्थापित हो जाते/सकते हैं। ऐसे में माता-पिता उन पर यौन शोषण या दुष्कर्म के आरोप लगा देते/सकते हैं। अभी कानूनन ऐसा माना भी जाएगा, चूंकि सहमति के साथ संबंध की उम्र 18 ही है। फिर पुलिस परेशान करेगी। ज्या़दती करेगी। अत्याचार।
 
यानी, माता-पिता से बचाने के लिए घटाई जा रही है संबंधों की उम्र!
कानून मंत्रालय को लागू करने हैं ये कानून। वह एक कदम और आगे है। वह चाहता है यह उम्र 14 ही कर दी जाए। तर्क   नई पीढ़ी बखूबी समझती है कि सहमति से संबंध क्या हैं और बलपूर्वक किया यौन अपराध क्या। यही नहीं, कई महिला संगठन भी उम्र घटाने की बात कर चुके हैं। उनका हवाला भी दिया जा रहा है। टीन एज सेक्स का अपराधीकरण इससे रोका जा सकेगा  यह कहा जा रहा है। 
 
उधर, महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय इसका विरोधी है। महिला सुरक्षा की जिम्मेदारी उसकी है। उनकी मंत्री कृष्णा तीरथ ने कहा है कि इससे कम उम्र की लड़कियों का शोषण बढ़ेगा। बच्चों को शिकार बनाने का निमंत्रण है ऐसा कदम। विशेषकर तब, जबकि शादी की उम्र तो 18 वर्ष ही वैध है।
 
सरकारें जो चाहे, तय कर देती हैं/रही हैं। किन्तु क्या वह, बगै़र किसी राष्ट्रीय बहस के, हमारे बच्चों के नितांत निजी और परिवार-समाज की संरचना से जुड़े इतने संवेदनशील मामले को इतने हलके तरह से तय कर सकती है? किसने दिया उसे यह अधिकार? 
 
एक वर्ष भी नहीं हुआ। जब संबंधों की उम्र 18 मंजूर की गई थी। चाइल्ड मैरिज प्रोटेक्शन एक्ट,1929 में यह 18 है। प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्स,2012 में यह 18 है। यहां तक कि इस अध्यादेश तक में  क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) आर्डिनेंस 2013 में भी 18 ही है। तो अब अचानक 16 या 14 क्यों कर देंगे? क्या हम पहले नासमझ थे?
 
सरकार हमसे सारी बातें पूछे, यह असंभव है। किन्तु पूछनी ही होंगी। विशेषकर ऐसे फैसले। भयावह हो सकते हैं ऐसे फैसले। छोटी उम्र की बच्चियां, शादी से पहले गर्भवती होने लगेंगी कानूनन। गर्भपात होने लगेंगे कानूनन। लड़कियों की तस्करी जैसे पाप बढ़ने लगेंगे। पकड़े जाने पर काफी कुछ सामने लाया जाएगा कानूनन। हमारे सामने स्पष्ट यह भी है कि जिन्हें संबंध बनाने हैं वे तो बना ही रहे हैं/ रहेंगे।  रुकेंगे नहीं। किन्तु रुक तो कुछ भी नहीं रहा। जघन्य हत्याएं। नृशंस दुष्कर्म। और कोई भी भयावह अपराध। तो क्या सभी में उम्र घटा दें? सजा की उम्र भी घटा दें? धाराएं ही घटा दें? हम ही न घट जाएं! 

CRITICAL ANALYSIS:
  1. केंद्रीय काननों मंत्रालय का ६ मार्च, 2013 का नोट एवं संयुक्त राष्ट्र जनसख्या फंड की ८ MARCH, 2013 की रिपोर्ट तो हक़ीक़तन जो हो रहा है उस सत्य पर आधारित है पर कल्पेश जी की रिपोर्ट का आधार क्या है ये तो शायद वे खुद भी नहीं जानते। क्या हम उनकी सनसनीखेज रिपोर्ट को महज एक काल्पनिक दिमाग की दिल जलाने वाली याग्निकता समझ कर IGNORE कर दें?
  2. सच है - जितने सर उससे भी ज्यादा मन और उतने ही अलग-अलग विचार पर एकमत कोई भी नहीं क्योंकि हम एकात्म से अहंकारवश सच को दिल-ओ-जान से कबूल कर उससे एक हो ही नहीं पाते।
  3. क्या सिर्फ हमारे ही बच्चे बच्चे हैं? क्या फैसला लेने वालों के बच्चे नहीं? क्या उनके बच्चे हमारे नहीं? क्या हमारे बच्चे उनके बच्चे नहीं?
  4. हम लोगों ने ही तो चुना था हमारे सांसदों को और उन सांसदों ने ही तो कबूल किया था उन्हें उनके मंत्रालय का समीक्षक, रक्षक या कार्यकारिणी अधिकारी। फिर उन्हें हम कोई हक न देकर पंगु बनाना चाहते हैं, अपनाप पर आश्रित बनाना चाहते हैं या ये बहसबाजी सिर्फ एक चाल है अपना वर्चस्व कायम करने हेतु? 
  5. आपसे अगर दैनिक भास्कर परिवार ये उम्मीद रखे की हर फैसला लेने के पहले सारे रायचन्दों की राय लें, सलाह-मशविरा करें राष्ट्रीय सम्पादक महोदय तो आप कैसा महसूस करेंगे जनाब? क्या आपके मनोबल, आपके आत्मा-विश्वास, आपकी आस्था को ठेस नहीं पहुंचेगी? क्या आपकी चाल मंद गति के समाचारों जैसी नहीं हो जायेगी?
  6. किसी को भी मौत की सजा देना से डरना - चाहे वो अपराधी हो या हो बेगुनाह, एक करुणावान सरकार की पहचान है जो आप जैसे वेह्शी शायद ही कभी अनुभूत कर पाएँ ?
  7. हम कौन होते हैं किसी को यौन सम्बन्ध बनाने की छूट देने वाले या उम्र तय करने वाले? खासतौर से तब जब हम पूर्णतः नावाकिफ है पूर्ण तथ्य से। जाने कैसे, कब, कहाँ और जाने किस बंद कमरे में, स्कूल में, खाली मकान में, खेत में, पिकनिक पर, डांडिया रात में, डिस्को क्लब में, बर्थडे पार्टी में, JOINT STUDY के वक़्त और पता नहीं कहाँ-कहाँ ये संभावित सम्भोगीय घट सकती है। कहाँ-कहाँ और कैसे रोकेंगे उस शक्ति को अभिव्यक्त होने से जिस शक्ति की वजह से ही आप, हम और हम सब पैदा हुए हैं? नहीं, उस प्राकृतिक इच्छा को, उस भूख को, उस प्यास को, उस तलब को - फिर चाहे हम उसे वासना कह लें, अभिचार कह लें या कह लें उसे प्यार - पर सत्य ये है की हम उसे रोक नहीं सकते, CONTROL  नहीं कर सकते। तब तक तो कतई नहीं जब तक हम उससे डरे हुए हैं और उस शक्ति से आँख में आँख मिलकर बात नहीं करना चाहते, देखना नहीं चाहते, समझना नहीं चाहते। उस कमसिन उम्र में तो बिलकुल भी नहीं। उन कमसीन नादान जवान लोगों से तो ये उम्मीद करना भी नादानी ही है। खासतौर से तब जब हम सब खुद इतने बड़े होने के बाद भी उस शक्ति के वश में हैं।
  8. डर को जीतने देना चाहते है अगर आप तो जरुर जीताईये श्रीमान नरेन्द्र मोदी जैसे कट्टरवादी हिन्दू को अपना बहुमूल्य फ़ासिस्ट वोट देकर और देखिये हिटलर युग की एक नई शुरुआत।
  9. प्रेम की शक्ति से अवगत हो जाइए आप। बहुत ही सुकूनतर है ये शक्ति भय की चीत्कार से। इतनी ताक़त है इस शक्ति में की पूरा की पूरा संसार ही बदल डालती है ये एक ही क्षण में और वो भी बिना किसी को आपका गुलाम बनाए बगैर। आपकी और सामने वाले की स्वतंत्रता को भी ये कायम रखती है आपको निर्भयी निर्भया बनाकर।कबूल कर पायेंगे आप ये अंदरूनी तथ्य या भटकाव ही समझेंगे आप इसे सदा की तरह।
  10. विदेशी लोग शायद इसीलिए हम भारतीयों से ज्यादा आध्यात्मिक समझ रखने वाले हैं क्योंकि उन्होंने मुहँ की बातों को संवेदना समझने की भूल नहीं की। वे लग गए इन संवेदनाओं के पीछे की मूलभूत प्यास को अनुभूत करने में और देखिये आज वे कहाँ है और हम कहाँ। जगत गुरु मानते हैं हम खुद को और लगे रहते हैं या तो सम्भोग करने में या धरती माँ की जनसँख्या बढाने में या फिर इन्द्रियों के सुख की बेपनाह तलाश में।
  11. जी हाँ ...मंत्रालय जिस आधार पर जो प्रस्ताव दे रहा है वही हो रहा है सबह-शाम, दिन-प्रतिदिन। विश्वास ना हो तो सारे भारतीय अखबार नहीं तो कमसकम अपने ही अखबार में प्रकाशित समाचारों को ध्यानस्थ हो माता-पिता, शिक्षकों, पुलिस वालों, कानून वालों द्वारा सताए गए बालक-बालिकाओं की संवेदनाओं को अनुभव करने की कोशिश कीजियेगा।
  12. जी हाँ ...टेक्नोलॉजी ने, तकनीक ने, इन्टरनेट ने, गूगल ने, मीडिया ने, टीवी ने, फिल्मों ने, मोबाइल ने  हमें बहुत कुछ दिया है। जो विज्ञान ने हम तक पहुंचाया है उसमे से कुछ तो हमारी बहुत सहायता करता है आनंदित होने में और कुछ बहुत ही व्याकुल कर घायल कर जाता है हमारे समाज को। टीन ऐज सेक्स और उसके अपराधीकरण की प्रवृत्ति भी इन्ही उपकरणों से और भी विस्तृत हुई है, साकार हुई है।
  13. जी हाँ ...ये भी पूर्णतः सत्य है चाहे हम कितने ही कानून ले आयें, सख्त हो जाएँ, कड़ी सज़ाएँ दे अपराधियों पर अपराधी शोषण करने का एक नया मार्ग ढूंढ ही निकालेंगे। ठीक उसी तरह जिस तरह सदियों से वो या यूँ कहें की हम करते आ रहे है। आश्चर्यचकित मत होइए ...हम भी तो टैक्स बचाने के, व्यवसाय करने के, रिश्वत देने-लेने के, नकली खरीदने-बेचने के, मिलावट करने के, चोर बाजारी करने के, सड़क-बिजली-पानी-संपत्ति के शुल्क देने से बचने के नए-नए तरीके ढूंढ-ढूंढकर दिन-प्रतिदीन प्रकास गति से विकसित होते जा रहे हैं।
  14. जी हाँ ...हमें ही घटना होगा - तादाद में, उत्पात में, उत्पाद में - ख़त्म कर लेना होगा हमको हमारा "मैं", हमारा अहंकार, हमारा अन्धकार - ध्यानस्थ होना होगा हमें हमारे ही मन का, चिंतन का, मनन का दृष्टा बन। तब ही हो सकेगा रोशन एक नया सवेरा - जी हाँ ...ये सवेरा दैनिक भास्करी नहीं शाशवत  भास्करी होगा       

Man is bad case.... isn't it?

थोथे का पोथा:

थोथे का पोथा:

मालूम है भाई ...मालूम है मुझे भी की इस ट्विटर युग में हमारा ये पोथी कौन पढ़ेगा? खासतौर से तब जब हम कोई नामचीन, नामी-गिरामी, सफलतम, वरिष्ठ लेखक नहीं अपितु फकत एक नाचीज थोथे हैं। लक्ष्मी जी के वाहन ही सही पर हैं तो हम उल्लू ही। पर क्या करें की बचपन से ही सुना है हमने की 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ।" तो सोचा की क्यूँ ना आज पंडितों की सवा में हम भी ये पोथा पेश करें। शायद हमारे भाग्य का भी उदय हो जाए। फिर कृष्णा भी तो कह गए की 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते', सो ये हमारा मूलभूत अधिकार भी है की हम वो करें जो हम करना चाहते बिना किसी भी मनवांछित फल की अपेक्षा किये।

सो हम हाजिर हैं आपको फिर एक बार बोर करने को ...

तो फ़क़ीर दुआ क्या करता है?
बयान करने के काबिल कोई कहानी दे 
मेरे खुद, मेरे अलफ़ाज़ को भी मानी दे 
किसी का दिल जो दुखाये मेरी जुबां यारब
तो मुझ फकीर को तौफीके बेजुबानी दे 
सुनो महाराज ... जगत के वाली
मस्ती बरस रही है तेरी हर हर निगाह से 
सागर पिला रहा है वो आँखों की राह से 
अर्शे बरी से आकर सहारा दिया मुझे 
मैं तो भटक चूका था हकीकत की राह से 
सुनो महाराजा ...जगत के वाली 
हर गलत मोड़ पर टोका है किसी ने मुझको 
एक आवाज़ जब से तेरी मेरे साथ हुई 
सुनो महाराजा ...जगत के वाली 

अब विभीषण रुपी हमारेहनुमान सुबह-शाम थोड़े समय रटने वाले पंडितजी विजयशंकर मेहता से ये रावण रूपी दीवाना वारसी कुछ कहना चाहता है।हाँ मैं मूर्ख हूँ, हाँ मैं वही रावण हूँ, हाँ मैं ही उस बुराई का प्रतीक हूँ जो सालों साल आप अच्छे से भरे लोगों द्वारा साल दर साल, हर साल सदियों से जलाए जाने के बाद भी हर साल पुनः खड़ा हो जाता हूँ और वो भी एक फीट कद में और ऊंचा होकर। छाहे कितने ही दसहरा मैदानों में आप मुझे जला लें, मैं मरने नहीं वाला क्योंकि रामजी के हाथों मरकर में अमर हो चूका हूँ, मोक्ष प्राप्त कर चूका हूँ। आप अच्छे लोग मिलकर ७ अरब भी हो जाएँ संख्या में तो मुझे मार ना सकेंगे क्योंकि मैंने अपनेआप को आपकी अन्दर स्थापित कर लिया है। मैं जिंदा रहता हूँ आपकी 'दैनिक भास्करी' दिनचर्या में। मैं घर कर गया हूँ आप सबके अन्दर। छ गया हूँ मैं आपके दिलों-दिमाग में पूर्णतः। मैं ही साईं राम हूँ, मैं ही रावण हूँ और हाँ विभीषण भी मैं ही। हाँ मैं वो सबकुछ हूँ जो आपके भीतर बस्ता है। अब ये आपके ऊपर है, आपकी मनोदशा पर है, आपकी मनोकामना पर है की आप किसे जागृत करते हैं, किसकी आव्वाज़ दिन-रात सुनते हैं, किसका अनुसरण करते हैं, किसे ज्यादा तवज्जो देते हैं,किसका नाम जपते हैं अपने कर्म-कांडों में, किसे अपनाते हैं पूरी तरह। जी हाँ, फैसला पूर्णतः आपके आपके हाथों में ही है। और क्यूँ ना हो? की ये ज़िन्दगी आपकी है और आप ही अपने सुप्रीम जज है।

जानता हूँ की आप लोगों के पास न तो वक़्त है और ना ही कोई आरज़ू है मुझ जैसे 'मूर्ख' की बाते पढने-सुनने-समझने की पर फिर भी मैं अपना कर्म करना क्यूँकर बेवजह छोड़ दूँ? जब आप लोग अपना रास्ता नहीं छोड़ते तो मुझसे क्यूँकर उम्मीद रखते हो की मैं अपने रहबर "पंडित बेदार शाह वारसी" के दिखाए मार्ग को छोड़ दूँ? पता है मुझे की आप लोग सफलता के नुस्खे नहीं सफलतम के उवाच सुनना, पढना पसंद करते हो पर फिर भी मुझे आपको आत्मा-मंथन के लिए मजबूर से मुझे कोई नहीं रोक सकता है। ये हक है मेरा और आपका भी, जो हमें खुदा से मिला है।
पंडितजी आप पहले स्वयं गलत आदतों को छोड़ कर दिखाएँ फिर हमें जीने की राह दिखाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा। आप समझते हैं के अच्छाई  बुराई की मदद कर रही है पर ये भी तो बताइए की यहाँ अच्छा कौन और बुरा कौन? क्या खुद को अच्छा मान बैठा पंडित ज्यादा बुरा नहीं उस आदम से जो मानता है की वो गुनाहगार है, बुरा है और सदा प्रयासरत रहता है माफ़ी मांगते हुए अपने गुनाहों के प्रायश्चित के लिए? कहीं ऐसा तो नहीं की यहाँ बुराई अच्छाई की मदद कर रही है उसका सूक्ष्म अहंकारी मन के नकली मुखौटे को उतार फेकने में? ज्यादा नहीं फकत आधा इंच ही अपनी निगाहें फेरे 'जीवन दर्शन' में बैठे संत फ्रांसिस के कहानी पर और आप जान जायेंगे की मुर्ख कौन और मूर्खाधिपति कौन? राह के शूल भी फूल बन जायेंगे गर आप ये कबूल कर लें की आपमें बुद्धि तो है पर विवेकशील बोध नहीं। दिल से इस तथ्य को स्वीकार करते ही मौला इतना परोपकारी है, दयानिधान है, रहमदिल है की आपको भी नवाज़ा जाएगा पाक-साफ़ नीयत की राह पर दीन-ओ-ईमान के साथ रूहानी रोशनाई के नूर से। जब मुझ जैसे रावण को वो बक्श सकता है तो आप भले ही 'घर के भेदी लंका दहाने वाले विभीषण ही क्यूँ ना सही' - वो आपको भी जरूर नवाजेगा। खेल बस आपकी नीयत का है।

सबूत के रूप में देखिये की आपके बेवकूफ मुरीद आपके होते हुए क्या कर रहे है:
 
रविवार को सुबह 10 बजे देखना मत भूलिए ..पेज पर सप्ताह का सबसे ज्यादा पसंद किया गया व्यंगचित्र .. " CAC कार्टून ऑफ़ द वीक " ..
रविवार को सुबह 10 बजे देखना मत भूलिए ..पेज पर सप्ताह का सबसे ज्यादा पसंद किया गया व्यंगचित्र .. " CAC कार्टून ऑफ़ द वीक " ..
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  • Manish Badkas one more news was also upfront...which you probably purposefully missed doc...it was about Laalkrishna Adwani's self & BJP nalysis or realization viz; "dharm se jyaada vikaas lubhaavit karta hai aajkal logon ko. - Laalkrishna Advani...karega hi swaarth siddhi hamesha se hi manmohak lagti aayi hai maanav mann ko 
मनीष जी यह लालकृष्ण को क्या सभी को समझ लेना चाहिये कि धर्म इन्सान की आत्मा मे है दिखावे मे नही और एक अच्छी आत्मा सिर्फ और सिर्फ अच्छे कर्मो से हीजानीजाती है ।
मुल्ला-यम माया फटी जैसे कमिनो ने खुद को मुस्लिम और पिछडे धर्मो का ठेकेदारो बनकर ही हिन्दुओ को भी यह समझने पर मजबुर किया की हमारा भी कोइ धर्म है ईन्सानियत और कर्म से भी बढ कर ।
पर वास्तविकता मे आमजन तो सिर्फ विकास ही चाहते है जिसकी एक बहूत बडी कीमत !
कांग्रेस वसूल ही रही है भ्रष्टाचार कर कर कर के ।
जय हिन्द ।
मतलब ये के कोई दुष्ट आत्मा का शिकार हो जाए या विकास के नाम पर स्वार्थ सिद्धिवश पदलोलुप होकर दुष्कृत्य करने के लिए लालायित हो उठे तो हमें भी उसे सबक सीखाने के लिए अपना प्रेमपूर्ण, सत्यानिष्ठापूर्ण, कर्तव्यपरायण, कर्मयोग, दीं-ओ-ईमान का मार्ग छोड़कर वो ही मार्ग अपना लेना चाहिए जिसके हम धार्मिक विरोधी बन रहे हैं? 
यही अमानवीय सोच तो मुजाहिद्दीन या कट्टरवादी संगठनो की है। तो फिर कौन गलत औए क्या सही? कृपया मुझ उल्लू को ये समझाने की या बताने की कृपा करे महाराज। आप बड़े ही कृपालु और हैं दयालु भी।
CARE SHOULD BE TAKEN IN FIGHTING A MONSTER LEST YOU BECOME A MONSTER.
                                                                                                                                      - NIETZSCHE
These are also the basic lines used by the maker of अब तक छप्पन - a hindi film based on delusional concept of ENCOUNTER KILLING.
इस तरह से तो पूरी काएनात अंधी हो जायेगी।
                                                        - महात्मा गांधी 
रही बात सभी को ये बात की 'धर्म इंसान की आत्मा में ही है दिखावे के लिए नहीं और एक अच्छी आत्मा सिर्फ और सिर्फ अच्छे कर्मो से ही जानी जाती है' के आपके अद्भूत वक्तव्य का तो देखिये ना की आप इस बात को भली-भाँती जान-समझ लेने के पश्चात भी आगे कुछ ऐसा लिख बैठे जो आपकी ही समझ को दूषित कर गया। ध्यानस्थ अवस्था में ना होने से ये अक्सर होता है की काम क्रोध बन जाता है, करुणा द्वेष और सुशीलता अविवेक। क्या ख़याल है?

चोरों का भीतरी जमीर तो बहुत जल्द जाग उठता है गाँधी जी 
पर 
स्वयं का आत्म-मंथन करने के बजाये स्वयंभू पंडित बने बैठे मन का कौन है मनीषी?
ये बनिया बुद्धि तो ध्यानस्थ भी होना चाहते है स्वार्थ सिद्धि के विकास के लिए ही 
जगत कल्याण की भावना इनमे कैसे जागृत होगी तुम ही बताओ परम हितेषी 

चलो कमस्कम इतना तो माना मोदी  की गलती सरकार से हुई थी 
जनता ने विकास की छह में माफ़ कर बनाये राखी उनकी सरकार १ वर्षो तक गुजरात में 
अब ये भी बता दीजिये महामुहिम की इस बार कौनसा गुनाह करेंगे वो बन्ने को प्रधानमन्त्री 
कितनो का बेडा पार करेगी इस बार उनकी सरकार 
फिर कौनसा अच्छा काम कर के बनाये रखेगी अपनी साख विघ्न-संतोषी 
क्या इस तरह ही ओढ़े रखते हैं ये मुखोटे आत्मा-संतोषी?

तुमने तो शायद सबकुछ पाकर प्रीत है पाई
मैंने तो मगर पि पाकर ही सबकुछ पा लिया माई  

सबकुछ पाकर सबकुछ बख्शने वाले की प्रीत का राज़ खुला तुमपर  
हमने मगर इतनी पि पिया की नज़रों से की अब होत है जग-हँसाई

शायद इसीलिए कह गईं मीरा बाई 
की;
जो मैं ऐसा जानती 
प्रीत किये दुःख होए
नगर ढिंढोरा पीटती
प्रीत करियो न कोए 

क्योंकि ऐसा जान लेने के बाद भी मीरा बाई ने कभी ये नगर ढिंढोरा पिटवाया नहीं तो मुझ जैसे दीवाने/दीवानियों के लिए अब भी प्रेम-भक्ति मार्ग अब भी प्रशस्त है। शायद ये राज़ स्वयं अनुभूत करने हेतु की आखिर ऐसा कौनसा दुःख है प्रीत में जो मीरा बाई जैसे प्रेम-दीवानी को ये कहने को विवश तो कर गया की "प्रीत करियो ना कोए" पर साकार रूप में कभी उस प्रेममयी से नगर ढिंढोरा नहीं पिटवा पाया? 

अभी और यहाँ:

जो अभी है यहाँ 
वही यहाँ है अभी 
यही अभी है वहाँ
और वही अभी है जहाँ 
इबादत अली है, मोहब्बत वली है
अली वली पे कुर्बान है वहाँ
मत पूछ के अली कौन है, क्या है, कैसा है 
के बातें फकत नज़रों से होती है वहाँ 
जानना चाहता है अगर की वली क्या करेगा 
क्या वही जो नबी कहेगा?
तो जान ले फकत इतना की वही होगा जो खुद करेगा वहाँ
के नबी ने देखा है आलम सरकार-ए-दो-आलम का
सरकार ही सरकार-ए-आलम भी और सरकार-ए-दो-आलम है वहाँ
बस इतना जान लेना तुम 
की;
अली ही वली है, नबी है और वही है खुदा भी वहाँ   
हाँ, ठीक वैसे ही जैसे
अभी - यहाँ है वहाँ  
और यहाँ - अभी है वहाँ 
शायद इसी अनुभूति के चलते कहत है कबीर वहाँ 
की;
जात ना पूछो साधू की 
पूछ लीजिये ध्यान 
मोल करो तलवार का 
पड़ी रहन दो म्यान
साहिब मेरा एक है
दूजो ना कोए 
जो साहिब दूजा कहे 
वो दूजो कुल का होए
जब मैं था, हरी नाही 
अब हरी है, मैं नाही
रूमी भी मदद करते हैं हम नादानों की ये कहकर 
की;
पता है ...
यहाँ से दूर ..बहुत दूर 
सही और गलत के पार
एक मैदान है 
मैं वहाँ मिलूँगा तुझे !!
अभी और यहाँ में 
पल-पल, पल-क्षीण ध्यानस्थ दृष्टा बनकर रहना सीख 
खुदाया, एक पल फिर ऐसा जरुर आएगा
जब " मैं " और " तुम " का तत्व भी खो जाएगा वहाँ 
" वो " ही " वो " फिर होगा वहाँ 
नवाज़ा जाएगा उस दिन तुझे भी 
तेरी पाक-साफ़ नीयत को
नेकी की राह पर दीन-ओ-ईमान के साथ चलता देख
आमीन        
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