Monday, October 24, 2011

सारा कसूर तुम्हारा

कहते हो तुम
की ज़िन्दगी नहीं मिलती दोबारा
चौरासी करोड़ योनियाँ फिर भी करते तुम गवारा
जो सच में ही होती कुबूल ये ज़िन्दगी
यूँ भटकते न फिरते तुम 'मनीष'
ये गलियां, ये चोबारा

कुछ कहना चाहती हैं
हाथों की यें लकीरें तुमसे 'मनीष'
मानो वक़्त का कहा
समझो ज़ीस्त का इशारा

दोस्त जो तुमसे हकीकत है छिपाता
असल में होता वो दुश्मन तुम्हारा

दुश्मन जो तुम्हें हकीकत से रूबरू है करवाता
होता वही असल में दोस्त तुम्हारा

हकीकत मगर ये
की तुम ही तुम्हारे सबसे करीबी दोस्त हो 'मनीष'
और
है 'मनीष' ही सबसे बड़ा दुश्मन तुम्हारा

उदास होते हो ये देख
की हर कोई ठुकरा रहा है तुम्हें
चिंतित होते हो ये देख
की हर कोई फुसला रहा है तुम्हें
लज्जित क्यों नहीं मगर ये देख तुम 'मनीष'
की एक खुद के सिवा हर और ध्यान है तुम्हारा

क्यूँ कर काफी नहीं तुम्हें
ये रूहानी नेमतें
क्यूँ मांगते फिरते हो
ये ज़माने की दौलतें
क्यूँ नहीं एक बार को
 मांग लेते तुम वो नूर-ए-नज़र
छूट पड़े जिससे
ये रोज़-रोज़ माँगने का सिलसिला तुम्हारा
देख सको  तुम उसे
जो है मन-मंदिर तुम्हारा

देखते रहो...देखते रहो...देखते रहो
के जब तक के
मन न भर जाए तुम्हारा
और फिर भी जो रह जाएँ कुछ तमन्नाएं बाकी
समझ लेना की सारा का सारा कसूर है तुम्हारा

सपने आँखें नहीं
मन देखता है तुम्हारा
बोझ अपना वो दूजों पर
फेंकता है सारा
मानव लेकिन रजामंद है
मन की गुलामी से
इसी लिए तो
मन को बद कहता है 'मनीष' बेचारा



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