Wednesday, October 12, 2011

अजब हाल ज़िन्दगी



जीते जी
जो छोड़ दे साथ
ज़िन्दगी का
होती नहीं फिर
उसकी मौत कभी
मर-मर के
छोड़े जो हाथ
ज़िन्दगी का
ना पूरी तरह मरा
ना पूरी तरह जिया
वो ज़िन्दगी


अजब हाल है ज़िन्दगी का यहाँ...

ना
जी पाता हूँ तेरे बिन
और ना ही
मरना कहा जा सकता है इसे...

एक पल खुश होता हूँ
तुझे सोच...
तो दुसरे ही पल
उदास हो जाता हूँ
तेरी जुदाई से...

चीड़चिड़ाता हूँ अपनों पर
बेवजह...
तो गले लगाता हूँ गैरों को
बावजह...

रातों को जागता हूँ
उल्लुओं की तरह...
तो
दिन गुजरता है मदहोशी में
नवाबों की तरह...

भूख लगती है तो बस तेरी
प्यास होती है तो सिर्फ तेरी

फिर भी
खाता हूँ मैं क्या-क्या कुछ नहीं
कभी लोगों की झिड़क
तो
कभी अपनी ही सनक...

कभी नाच उठता है मन मेरा
तो
कभी घबरा जाता है दिल...

हिज्जा-हिज्जा हुई जाती है
ये ज़िन्दगी
कतरा-कतरा कटी जाती है
ये ज़िन्दगी
बूँद-बूँद पिलाई जाती है
ये रिंदगी

हूँ यहाँ मैं आधा
और
तू वहाँ है अधूरी

किस मुहाल पूरी हो
ये बन्दगी...

जानता हूँ
बाखूबी जानता हूँ मैं
की
तू भी बेहाल है वहां
ए ज़िन्दगी...

किस फितरत होगी तू बहाल
ए ज़िन्दगी...

लगी हुई है एक जैसी ही आग
हमारे सीनों में

एक ऐसी आग
जो जला ना सके किसी का भी घर...

जलाते हैं हम इसलिए खुद को ही
की
बदनाम ना हो जाए कहीं आशिकों का शहर...

जीते हैं मर-मर के
और
मरते हैं जी-जी कर

बा-हर-हाल
पूरा तो होगा ही ये इश्क का सफ़र...

नाम 
जिस सफ़र का 
क्या खूब रखा किसीने - ज़िन्दगी

अंदाज़ अजीब ही सही
पर
हर हाल सीखाये जाती है
ये बन्दगी...

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